काश तुमने किसी ख़त का जवाब ही ना दिया होता
दिल को मेरे एक झूठा हौसला ना दिया होता
दे ही देते इक सज़ा उस जुर्रत-ए-दीदार की
काश नजरों से हमारी कुछ समझ ना लिया होता
मार देते ठोकरें ही, की कदमबोसी जो हमने
भूलकर भी जुर्म ऐसा फ़िर कभी ना किया होता
पी के ग़र ज़िंदा रहे होंगी ही कु़छ ग़ुस्ताख़ियां
काश उस क़ातिल नज़र का जाम ही ना पिया होता
बिन हौसले के मर तो जाते ग़म में तेरे ए सनम
ऐसी उम्मीद-ए-वफ़ा में फ़िज़ूल ही ना जिया होता
- मंदार.
Friday, January 09, 2009
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