जो अंगूर मिले वो तो खट्टे थे
जो ना मिल पाये वो शायद मीठे
क्या इसे ही कहते हैं खट्टी मीठी ज़िंदगी?
****
उसी बेला के फूल तुमने भी चुने और मैंने भी
वही सुनहरे सपने तुमने भी बुने और मैंने भी
मैंने वो फूल, तुमने वो सपने, आज बेच डाले हैं
****
चली जाओ सखि लौटकर आज - गले मत लगो, बात मत करो,
कल भी न आओ, परसों भी नही; जाने दो कुछ समय ऐसे ही
पगली.. इतनी मिलोगी, तो तुम्हें याद करना भूल जाएंगे हम!
- मंदार.
जो ना मिल पाये वो शायद मीठे
क्या इसे ही कहते हैं खट्टी मीठी ज़िंदगी?
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उसी बेला के फूल तुमने भी चुने और मैंने भी
वही सुनहरे सपने तुमने भी बुने और मैंने भी
मैंने वो फूल, तुमने वो सपने, आज बेच डाले हैं
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चली जाओ सखि लौटकर आज - गले मत लगो, बात मत करो,
कल भी न आओ, परसों भी नही; जाने दो कुछ समय ऐसे ही
पगली.. इतनी मिलोगी, तो तुम्हें याद करना भूल जाएंगे हम!
- मंदार.
5 comments:
nice...
here is what came to my mind
मेरे सपनों की महक आज भी जिंदा है
तुम्हारे फूलों की महक आज भी जिंदा है
खट्टे अंगूर वो जो बेच डाले, मीठे अंगूर आज भी जिंदा हैं|
:) too good!
last one is ...
"yaad karna bhool jayenge ham!"
bhari!
:) दुसरी त्रिवेणी खूप आवडली.
मस्त!
हा काव्यप्रकार ही तुझीच उपपत्ती आहे की आधीपासूनच अस्तित्वात होता?
@ सगळे: धन्यवाद!
@ शशांक: तौबा, तौबा! अरे गुलजार नी मुळात 'त्रिवेणी'प्रकार प्रचलित करून त्यात बरंच लिहिलंय. (त्यांचं मराठी रूपांतरण केलंय शांता शेळक्यांनी. शिवाय पाडगांवकरांनी लिहिल्यात मराठीत)..
पहिल्या दोन अोळीत एक पार्श्वभूमी उभी करतात ते, आणि तिस-या ओळीत त्याला एक वेगळीच कलाटणी देतात. जणू डोळ्याला दिसणा-या गंगा-जमुना, आणि त्यांना नकळत, गूढपणे येऊन मिळणारी सरस्वतीच.
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